Friday, January 29, 2010

इस मुस्लिम गोशाला से गाएँ मुफ्त मिलती है!

इस मुस्लिम गोशाला से गाएँ मुफ्त मिलती है!

सम्पूर्ण भारत में आयोजित विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा का आयोजन किया गया जिसका समापन 17 जनवरी को नागपुर में हुआ। भारत चूँकि कृषि प्रधान देश है इसलिए यहाँ प्रारम्भ से ही पशु पालन ग्रामीण जनता का मुख्य व्यवसाय रहा है। पशु पालन में गाय का अपना महत्व है, क्योंकि हमारे यहाँ प्राचीन समय से ही गाय धार्मिक और सामाजिक आस्था का केन्द्र रही है। इसलिए हर जाति-पंथ के लोगों ने गो पालन का काम किया है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मोहम्मद इब्राहिम पठान रसखान तो इस बात की कामना करते थे कि 'यदि मेरा दूसरा जन्म पशुओं में हो तो हे ईश्वर मुझे उन गायों में पैदा करना जिन्हें भगवान कृष्ण चराते हैं।' आजादी से पूर्व उत्तर भारत के अनेक मदरसों में मेरठ के प्रसिद्ध कवि मौलवी मोहम्मद इस्माइल की लिखी कविता-हमारी गाय-बालकों से सामूहिक रूप से पढ़वाई जाती थी। बच्चे इसे इस प्रकार से गुनगुना कर पढ़ते थे कि मानो वे कोई राष्ट्रगीत बोल रहे हों। उसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ थीं... 'रब का शुक्र अदा कर भाई, जिसने हमारी गाय बनाई।' लेकिन इस आस्था और इस परम्परा को उस समय ठेस पहुँ ची जब कुछ अलगाववादियों ने गाय को हिन्दू-मुसलमान की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया। गाय की हत्या हिन्दू मुस्लिम विवाद का विषय बन गया जो दुर्भाग्य से अब भी जारी है। भारतीय संविधान में गोहत्या पर प्रतिबंध नीति निर्देशक सिद्धांत के तहत दिया गया। साथ ही केन्द्र सरकार ने यह भी व्यवस्था दे दी कि गो हत्या राज्यों का मामला है इसलिए केन्द्र उस पर कोई कानून नहीं बनाएगा। इसलिए पिछले 62 वर्षों से जनता की माँ ग के बावजूद आज तक गोहत्या पर अनिवार्य बंदी का कानून पारित नहीं हो सका है, जिसका लाभ वे समाजद्रोही तत्व सरलता से उठा लेते हैं जो हिंदू-मुस्लिम एकता के घोर विरोधी हैं।

भारत में प्रारम्भ से पशुओं के माँस का व्यवसाय चलता आ रहा है। प्राचीन भारत के रजवाड़ों में 106 दिन माँसाहार बंद रहता था, लेकिन स्वतंत्र भारत में अब इस पर कोई रोक नहीं है। हर दिन हर समय माँस का व्यवसाय चलता है। चूँकि गो हत्या पर प्रतिबंध नहीं है इसलिए शंका की सुई मुसलमानों की ओर उठना निश्चित है। अवसर मिलने पर गो हत्यारे इन्हें देशकी सीमाओं पर ले जाकर तस्करी के जरिए विदेशों में भेज देते हैं। लेकिन इन पशुओं की हड्डियाँ , आँतें, खून, चर्बी और चमड़े का व्यवसाय बड़ी कम्पनियाँ करती हैं। इनमें अधिकतर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हैं। वे इतनी बड़ी और समृद्ध हैं कि दुनिया में इनकी गिनती हथियार लॉबी के बाद दूसरे नम्बर पर होती है। पशु पालन का व्यवसाय करने वालों का एक दूसरा पहलू भी है, जिसमें दूध का व्यवसाय एवँ पशुओं के चराने का काम मुख्य है। अब देश में गोचर भूमि तो लगभग सभी प्रदेश सरकारों ने किसी न किसी रूप में बेच दी है, लेकिन आस-पास के भागों में जहाँ कुछ जंगल हैं वे अब भी वहाँ अपने पशुओं को चराने के लिए जाते हैं। दूसरा व्यवसाय दूध बिक्री का है। वे अपने पालतू पशुओं के दूध को बाजार में ले जाकर बेचते हैं। दूध तो भैंस और बकरी का भी होता है, लेकिन हम भारतीय गाय के दूध का ही आग्रह रखते हैं इसलिए गोपालन हमारे आकर्षण का मुख्य केन्द्र है।

महानगर मुम्बई में अनेक गुजराती मुसलमान हैं जो दूध का ही व्यवसाय करते हैं। इनमें पटेल प्रमुख हैं। आपको मुस्लिम मोहल्लों में दूध वाले का बोर्ड और दूधा भाई नाम के मुस्लिम सज्जन मिल जाएँ तो आश्चर्य नहीं। बीकानेर में दूध की मंडी लगती है जिसके 25000 सदस्य मुस्लिम हैं। पाकिस्तान की सीमा से लगे हुए राजस्थान के चार जिले अपने गो पालन और गोभक्ति के लिए प्रख्यात हैं। इनके पास थरपरकर, नागोरी और राठी नस्ल की गायें हैं। भारत में गायों की 33 नस्लें मानी जाती हैं। राजस्थान की गायों का जवाब नहीं है, जो अपने दूध उत्पादन के लिए प्रख्यात हैं। यद्यपि उत्तर भारत में भी अनेक मुस्लिम परिवार गोपालन और दूध के व्यवसाय से जुड़े हैं। भारत में जर्सी गायों की नस्ल ने इस व्यवसाय को बहुत नुकसान पहुँचाया है। प्राचीन परम्परा के गो पालक इसे भारत के लिए अभिशाप की संज्ञा देते हैं।

भारत इतना बड़ा देश है कि यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि गाय की रक्षा में मुसलमानों का क्या योगदान है। जब देश के दूरदराज क्षेत्रों में पहुँचते हैं तो इस रेगिस्तान में भी नखलिस्तान के दर्शन होते हैं। वहाँ पाँच से 35 तक गायें पालना और उनका भरण-पोषण करना एक पारिवारिक काम-काज है, क्योंकि गायें उनके जीवन का आधार है। लेकिन भारत में अब आवारा पशुओं में गायों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। कई लोग उन्हें कसाई के हाथ बेच देते हैं, जो बड़े दलालों के माध्यम से देश-विदेशके बूचड़खानों तक पहुँ चा दी जाती हैं। लेकिन अनेक गायें जो नगरों में इधर-उधर घूमती रहती हैं, उन्हें पांजरा पोल (काँजी हाउस) में ले जाकर बंद करा दिया जाता है। उन्हें वहाँ खाने को नहीं मिलता है इसलिए या तो वे समय के साथ दम तोड़ देती हैं या फिर उन्हें आसपास की गोशालाओं में भेज दिया जाता है। सरकार की ओर से उनकी कोई व्यवस्था नहीं होती है। इसलिए जीवदया से प्रेरित लोग गोशालाएँ चलाते हैं। आज तो सम्पूर्ण भारत में गोशालाओं का जाल बिछ गया है। सामान्यत: यह माना जाता है कि गोशाला चलाने का काम बहुसंख्यक समाज ही करता है। लेकिन ऐसा नहीं है, आप अपने आसपास के क्षेत्र पर दृष्टि डालेंगे तो अनेक मुस्लिम बंधु भी गोशाला चलाते हुए दिखाई देंगे।


उदाहरण के लिए, आप राजस्थान में जोधपुर-बाड़मेर मार्ग पर चले जाइये। वहाँ आपको मुस्लिम गोशाला का बोर्ड लगा हुआ दिखाई पड़ेगा। राजस्थान तो बहुत दूर, जोधपुर के लोग भी नहीं जानते हैं कि उनके नगर में मारवाड़ मुस्लिम एजुकेशनल एँड वेलफेयर नामक एक संस्था चलती है, जिसके अंतर्गत मौलाना अबुल कलाम आजाद सीनियर सैकेंडरी स्कूल के साथ-साथ अनेक प्रकार के पाठक्रम चलते हैं। इस समय लगभग 3200 विद्यार्थी इस संस्था के अंतर्गत शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि यही संस्था गोशाला भी चलाती है, जिसका नाम उन्होंने 'मुस्लिम गोशाला' रखा है। इस गोशाला भवन और परिसर में जब इस लेखक ने झांक कर देखा तो वहाँ गायों का झुंड खड़ा दिखा। पूछने पर मालूम हुआ कि इस समय यहाँ 120 गायें हैं। गोशाला यद्यपि उपरोक्त संस्था चलाती है, लेकिन उसका सम्पूर्ण कामकाज श्री मोहम्मद अतीक देखते हैं। शेरवानी और टोपी से लैस अतीक साहब ने ज्यों ही हमारे साथ परिसर में प्रवेश किया, मैंने देखा गायें रंभाने लगीं और उन्हें आकर घेर लिया। गोशाला में प्रवेश करते हुए डाक्टर नंदलाल जी कल्ला एवँ राजस्थान वक्फ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष तथा जोधपुर के एक जाने-माने व्यक्तित्व श्री शौकत अंसारी भी हमारे साथ थे।


श्री मोहम्मद अतीक ने एक प्रश्न के उत्तर में बताया कि 'इस गोशाला के निकट अनेक देहात हैं। इन देहातों में शहर और गाँव की आवारा गायें किसानों का बड़ा नुकसान करती थीं। कुछ लोग उन्हें बेच दिया करते थे। तब हमारी संस्था ने इन्हें पालने का निश्चय किया। यदि कोई गृहस्थ इन्हें पालना चाहता है तो हम उसकी जाँच-पड़ताल करके उसे गाय सौंप देते हैं। हम उसका कोई मूल्य नहीं लेते। बहुत सारे लोग अपने घरों की गायें हमें पालने के लिए दे जाते हैं। जब वे दूध देने लगती हैं तो उन्हें पुन: ले जाते हैं। हम इस गोशाला पर प्रतिमाह 60,000 रुपया खर्च करते हैं। यदि कोई चारा अथवा खली आदि दे जाता है तो उसे स्वीकार कर लेते हैं। प्रति गाय हमारा प्रतिदिन औसतन 30 रुपया खर्च आता है। निकट में ही बोरिंग से हम पानी प्राप्त कर लेते हैं। सोसायटी ने हमें टेंकर की सुविधा प्रदान की है। इन गायों के लिए हमने पशुओं के डाक्टर आफताब को नियुक्त किया है।

डॉक्टर आफताब आसपास के गाँवों की बीमार गायों का भी इलाज करते हैं, उसका व्यय भी हमारी संस्था ही देती है। अतीक मोहम्मद साहब कहते हैं कि हमारे इन कार्यों के प्रेरणास्त्रोत जोधपुर रियासत के पूर्व महाराज उम्मेद सिंह जी हैं। पीपाड से आए हकीमखान और अब्दुस्सत्तार इन गायों की 24 घंटे सेवा करते हैं। हकीम खान की पत्नी अलारक्खी इन गायों से इतनी हिल-मिल गई हैं मानो उन्हीं के परिवार की अंग हों। वहाँ एक बछड़ा, जो आँखों से देख नहीं सकता था, उसके चेहरे पर हाथ फिराते हुए अलारक्खी कह रही थीं--'थूं खई काम रोवे है, मूँ बैठी हूँ न, थूं के दे मूं तारी माँ कोनी?' इस मोहब्बत को देखकर मेरी आंखें छलक आर्इं। अतीक साहब का सुझाव था कि हमारी सरकार आयकर में से केवल एक प्रतिशत इन भोली और निरीह आंखों से देखने वाली गायों पर खर्च का संवैधानिक प्रावधान घोषित कर दे तो भारत में गो पालन की समस्या का समाधान हो सकता है।

पाँचजन्य से साभार


वन्दे मातरम...

सचिन खरे

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