किसान आत्महत्या की दर 36गढ में सबसे अधिक
छत्तीसगढ में किसान आत्महत्या
2001 : 1452
2002 : 1238
2003 : 1066
2004 : 1395
2005 : 1412
2006 : 1483
स्रोत : केन्द्रीय गृह मंत्रालय का राष्ट्रीय अपराध अभिलेख
किसान आत्महत्या की दर 36गढ में सबसे अधिक: पर आंकडे झूठे हैं !
शुभ्रांशु चौधरी
आज शर्मा जी और वर्मा जी की कहानी से शुरु करता हूं । शर्मा जी और वर्मा जी की कहानी है तो काल्पनिक पर दोनों के साथ बहुत बुरा हुआ ।
एकदिन शर्मा जी के जवान बेटे ने आत्महत्या कर ली । उस पर खूब बवाल मचा कि आखिर एक जवान लडके ने खुदकुशी क्यों की । पत्रकारों ने इस पर खूब लिखा । प्रधानमंत्री भी शर्मा जी को मुआवज़ा देने आए । इंक्वायरी कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार शर्मा जी के बेटे की खुदकुशी के पीछे उसके को-एड स्कूल में पढना ही कारण था । को-एड स्कूल यानि जहां लडके और लडकियां साथ पढते हैं । जांच रिपोर्ट में बताया गया कि लगता है किसी बात पर शर्मा जी के बेटे को लडकियों ने चिढाया था और उसका युवा मन उसे सह नहीं सका ।
इस बात पर संसद में काफी बहस हुई कि आगे से ऐसे युवाओं की खुदकुशी को कैसे रोका जाए । पर को-एड स्कूलों को एकाएक बंद भी तो नहीं किया जा सकता ।
इसके कुछ साल बाद एकदिन अचानक शर्मा जी के मित्र वर्मा जी के बेटे ने भी खुदकुशी कर ली ।
काफी दुखद दृश्य था । लोग सांत्वना देने पहुंचे थे पर वर्मा जी लगातार कह रहे थे मैंने शर्मा जी के बेटे की खुदकुशी के बाद की सारी रिपोर्टें ध्यान से पढी हैं । मेरा बेटा को-एड स्कूल में तो पढता ही नहीं था तो वह कैसे खुदकुशी कर सकता है, ये डोक्टर झूठ बोल रहा है !
बेटे की लाश सामने पडी है पर वर्मा जी मौत की रपट लिखवाने को तैयार नहीं थे । इसलिए प्रधानमंत्री भी इस बार मुआवज़ा देने नहीं आए ।
शर्मा जी विदर्भ में रहते हैं और वर्मा जी छत्तीसगढ में । मुझे मालूम है आपको कुछ समझ नहीं आ रहा है । पर आज छत्तीसगढ में स्थितियाँ कुछ वर्मा जी जैसी है ।
आज से दो हफ्ते पहले 8 फरवरी को मैंने इसी कॉलम में लिखा था कि केंद्रीय गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो में उपलब्ध आंकडों के अनुसार छत्तीसगढ में हर साल लगभग 1400 खातेदार किसान खुदकुशी करते हैं यानि प्रतिदिन 4 किसान ।
यदि यह पता करने की कोशिश की जाए कि ऐसे कितने किसान आत्महत्या करते हैं जिनके नाम पर कोई खाता नहीं है तो इस बारे में कोई आंकडा उपलब्ध नहीं है ।
छत्तीसगढ में प्रतिक्रिया कुछ वर्मा जी जैसे हुई ।
कहा गया विदर्भ और आंध्र में किसान कैश क्रॉप बोते हैं, कर्ज़ लेते हैं इसलिए आत्महत्या करते हैं पर छत्तीसगढ में किसान धान बोते हैं जिसमें मेहनत तो लगती है पर अधिक कर्ज़ लेने की ज़रूरत नहीं होती, इसलिए ये आंकडे झूठे हैं ।
अब यह अलग बात है कि कृषि मंत्री शरद पवार ने संसद में यह माना है कि किसान आत्महत्या के राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकडे सही हैं । ( 30 नवंबर 2007 तारांकित प्रश्न क्रमांक 238, राम जेठमलानी को कृषि मंत्री का जवाब)
इन सरकारी आंकडों में कहीं यह नहीं कहा गया है कि इन किसानों ने किसानी से जुडे कारणों से आत्महत्या की है और न ही किसी ने ऐसा दावा भी किया है ।
कुछ लोगों ने कहा हम अंधे हैं क्या? रोज़ चार किसान आत्महत्या करेंगे और हमें पता भी नहीं चलेगा ? मैं सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि इन आंकडों की जांच होनी चाहिए ।
7 सालों से ये आंकडे राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो में पडे हैं किसी छत्तीसगढिया ने इन पर झांकने की ज़रूरत महसूस नहीं की । पर मैंने खोजना शुरु किया है क्या छत्तीसगढ में आत्महत्या के बारे में पहले भी कोई अध्ययन हुआ है ?
मुझे 1943 के वैरियर एल्विन की पुस्तक माडिया मर्डर एंड सुइसाइड के बारे में तो पता था जिसमें उन्होंने बस्तर के आदिवासियों में आत्महत्या का अध्ययन किया था और पाया था कि माडिया आदिवासियों में मुरिया की तुलना में अधिक आत्महत्या पाई जाती है और यह सवाल पूछा था कि ऐसा क्यों है ?
उसके बाद मुझे 2003 में लंदन स्कूल ऑफ इक़ोनॉमिक्स के प्रोफेसर जोनाथन पैरी के भिलाई क्षेत्र में आत्महत्या के एक अध्ययन के बारे में पता चला । मैंने प्रोफेसर पैरी से सम्पर्क किया तो उन्होंने बताया “कुछ साल पहले अपने अध्ययन के सिलसिले में मैं जब भिलाई में था तो मैंने पाया कि भिलाई की उन बस्तियों में जहां मैं अपना शोध कर रहा था आत्महत्याओं की संख्या सामान्य से अत्यंत अधिक थी । वे आत्महत्याएं इतनी ज़्यादा थी कि मैंने इस विषय पर भिलाई के अस्पतालों और पुलिस थानों से आंकडे इकट्ठा करना शुरु किया यद्यपि यह मेरे अध्ययन का विषय नहीं था”।
प्रोफेसर पैरी ने आगे कहा “यह वही समय है जब आंध्र से किसान आत्महत्याओं की खबरें आनी शुरु हुई थी । मुझे हमेशा लगा कि यह कहना कि ये आत्महत्याएं सिर्फ कर्ज़ के कारण हो रही थीं बहुत ही चल्ताऊ किस्म के अध्ययन का परिणाम था । पर मेरे भिलाई के अनुभव के बाद आप आज जो आंकडा बता रहे हैं उससे मुझे कोई अचरज नहीं हो रहा” ।
इस बीच कनाडा में पीएचडी कर रहे मेरे मित्र युवराज गजपाल ने राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकडों का थोडा और अध्ययन किया और पाया कि 2006 में छत्तीसगढ की हर एक लाख की आबादी में 7.11 किसानों ने आत्महत्या की । उसके बाद का आंकडा महाराष्ट्र 4.59 और आंध्रप्रदेश 3.42 और कर्नाटक का 3.25 का है । उसने पूछा महाराष्ट्र, आंध्र और कर्नाटक की आत्महत्याओं के बारे में तो खूब लिखा गया पर छत्तीसगढ के बारे में कभी कुछ पढने को क्यों नहीं मिला?
युवराज ने आगे लिखा छत्तीसगढ में खातेदार किसानों की संख्या प्रदेश की आबादी का 17% है पर कुल आत्महत्या में खातेदार किसानों की आत्महत्या का प्रतिशत 33% है अर्थात किसी और पेशे की तुलना में छत्तीसगढ में किसान दो गुना आत्महत्या करते हैं । ऐसा क्यों है ?
मुझे लगा इन आंकडों को मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट स्टडीज़ के प्रोफेसर के नागराज़ को दिखा लेना चाहिए जो इस विषय पर वर्षों से अध्ययन कर रहे हैं। प्रोफेसर नागराज़ ने कहा मुझे 2003 के बाद के आंकडे कुछ दिन पहले ही मिले हैं मेरा विश्लेषण भी कुछ हफ्ते तक पूरा हो जाएगा पर आपके ये आंकडे मुझे ठीक ही दिख रहे हैं ।
मैंने पूछा प्रोफेसर नागराज छत्तीसगढ में लोग कह रहे हैं कि यहां तो धान की खेती होती है कैश क्रॉप नहीं तो यहां किसान आत्महत्या कैसे कर सकते हैं ? “आप तमिलनाडु के तंजावुर जिले में जाइए वहां भी सिर्फ धान की ही खेती होती है पर वहां काफी किसान आत्महत्या कर रहे हैं । उसके विपरीत पूरे तमिलनाडु में कैश क़्रोप बहुत होता है पर यहां किसानों की आत्महत्या नगण्य है वह इसलिये कि यहां सडक काफी अच्छी है और फसल बरबाद होने के बाद किसान और काम तलाश सकते हैं । अर्थात हर जगह की कहानी अलग अलग है” ।
मैंने पूछा छत्तीसगढ की तरह बिहार और उत्तरप्रदेश में भी तो धान की खेती होती है पर वहां के किसान आत्महत्या क्यों नहीं करते ? देखिए छत्तीसगढ का अध्ययन करने की ज़रूरत है पर आप छत्तीसगढ या मध्यप्रदेश की तुलना गंगा-जमुना के तटीय क्षेत्रों से नहीं कर सकते और किसान सिर्फ कर्ज़ के कारण आत्महत्या नहीं करता, कर्ज़ एक बहुत बडा कारण ज़रूर हो सकता है । अगर आप 1991 के बाद के भारत को देखें तो आम आदमी के लिए राज्य की मदद धीरे धीरे कम ही होती गई है चाहे वह स्वास्थ्य हो या शिक्षा या सिंचाई । आत्महत्या इन सब कारणों का मिलाजुला असर होता है” ।
अंत में मैंने हिंदू अखबार के पी साईनाथ को फोन किया जो इस विषय पर राष्ट्रीय स्तर पर काफी दिनों से लिख रहे हैं । मैंने कहा छत्तीसगढ में पत्रकार इन आंकडों की खिल्ली उडा रहे हैं । श्री साइनाथ ने कहा “यह तो ऐसा हुआ कि यदि चुनाव परिणाम हमारी इच्छानुरूप नहीं आए तो चुनाव गलत है । आप मेरे नाम से लिखिए कि यदि लोग कह रहे हैं कि उन्होंने अध्ययन करके यह पाया है कि छत्तीसगढ में साल में एक ही किसान आत्महत्या करता है तब छत्तीसगढ तो धरती पर स्वर्ग है । मैं अब यूरोप और अमेरिका के किसानों को सलाह दूंगा कि वे छत्तीसगढ शिफ्ट हो जाएं क्योंकि यूरोप और अमेरिका में भी इससे अधिक किसान आत्महत्या करते हैं” !
लगता है छत्तीसगढ के पत्रकार कुछ कुछ वर्मा जी की तरह व्यवहार कर रहे हैं जिस वर्मा जी की कहानी से मैंने लिखना शुरु किया था । पर क्या छत्तीसगढ के राजनेता इस विषय की सुध लेंगे ? विधानसभा का सत्र इन दिनों चल रहा है क्या कोई इस विषय को वहां उठाएगा ?
36गढ आत्महत्या के आंकडे झूठे? रोज़ करते हैं चार किसान खुदकुशी
मुझ जैसे शहरी लोगों को किसान और किसानी की समझ कम होती है । पर यदि आप किसी प्रदेश के बारे में सपना देखना चाहें तो उस काम को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है जिस पर प्रदेश की 80% से अधिक जनता की रोज़ी रोटी निर्भर है ?
इसलिये छत्तीसगढ नेट की हर वार्षिक बैठक में हम पहला सत्र कृषि पर रखते हैं । इस बार हमने सोचा कि क्यों न विदर्भ से कुछ किसानों को बुलाया जाए और उनसे यह सीखा जाए कि छत्तीसगढ विदर्भ से क्या सीख सकता है।
हमें लगा छत्तीसगढ विदर्भ से लगा हुआ है जहां किसान हज़ारों की तादाद में आत्महत्या कर रहे हैं तो विदर्भ के किसानों से यह सीखा जाए कि हम वह क्या न करें जो गलती उन्होंने की है । किसी और की गलती से सीखना बुद्धिमानी ही है ।
हम लोगों ने विदर्भ आंदोलन के किशोर तिवारी और किसान नेता विजय जवांदिया से सम्पर्क किया । आपको पता होगा ये लोग विदर्भ में हो रही किसान आत्महत्याओं पर नज़र रखते हैं और रोज़ मुझ जैसे पत्रकारों को ई मेल करते हैं । विदर्भ की किसान आत्महत्याओं को दुनिया के सामने लाने में पत्रकार पी साईनाथ के अलावा इनका भी काफी योगदान रहा है ।
मैंने मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट स्टडीज़ के प्रोफेसर पी राधाकृष्णन से भी सम्पर्क किया । प्रोफेसर राधाकृष्णन छत्तीसगढ नेट के सदस्य हैं और उन्होंने किसान आत्महत्या पर काफी अध्ययन किया है ।
प्रोफेसर राधाकृष्णन ने मेरा परिचय प्रोफेसर के नागराज से कराया । प्रोफेसर नागराज ने बताया “यह बात तो सही है कि महाराष्ट्र किसान आत्महत्या के मामले में सबसे आगे है इसलिए आप विदर्भ के लोगों को बुलाइये । पर उससे भी अधिक ज़रूरी है कि आपको छत्तीसगढ में भी इस विषय पर अध्ययन करना चाहिए । छत्तीसगढ में भारी मात्रा में किसान आत्महत्याएं हो रही हैं” ।
दिसम्बर का आखिरी सप्ताह था । प्रोफेसर नागराज वार्षिक अवकाश में जाने की जल्दी में थे और मुझे उनकी बात पर कोई विश्वास नहीं हुआ । मुझे याद था कि मेरे एक मित्र ने इस विषय पर अध्ययन किया था और उस अध्ययन के अनुसार प्रदेश बनने के बाद से 2006 तक छत्तीसगढ में 5 या 6 किसानों ने ही आत्महत्या की है यानि हर साल एक आत्महत्या ।
विजय जवांदिया और किशोर तिवारी दोनों किसी कारणवश ड्रीम छत्तीसगढ बैठक में नहीं आ सके और उस बैठक में खेती से जुडे विभिन्न मुद्दों पर तो चर्चा तो हुई पर छत्तीसगढ विदर्भ से क्या सीख सकता है इस विषय पर चर्चा नहीं हो सकी ।
पिछले हफ्ते अखबारों में एक खबर छपी । उसमें लिखा था कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की सन 2006 की वार्षिक रिपोर्ट में लिखा है किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र अब भी सबसे आगे है पर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ का सम्मिलित आंकडा दूसरे नम्बर पर आता है । मैं चौंका ।
उस रिपोर्ट में आगे लिखा था सन 2006 में ( 2007 की रिपोर्ट अगले साल आएगी) देश में कुल 17,060 किसानों ने आत्महत्या की जिसमें सर्वाधिक 4453 महाराष्ट्र में हुए । उसके बाद सबसे अधिक किसान आत्महत्याएं मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में हुए जहां के लिये यह आंकडा 2858 का है ।
इसके बाद आंध्रप्रदेश और कर्नाटक का स्थान आता है जहां 2006 में क्रमश: 2607 और 1720 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं । उस रिपोर्ट के अनुसार आंध्र में यह आंकडा पिछले साल की तुलना में थोडा ऊपर गया है और कर्नाटक में यह आंकडा घटा है ।
मुझे आश्चर्य हुआ कि जैसा कि मुझे मालूम है कि छत्तीसगढ में पिछले 6-7 सालों में किसान आत्महत्या नहीं हुई तब मप्र का आंकडा तो बहुत ऊंचा होगा फिर किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्य के रूप में मप्र की गिनती क्यों नहीं होती ?
दूसरा प्रश्न मेरे मन में यह था कि छत्तीसगढ प्रदेश को बने 7 साल हो गए अब भी छत्तीसगढ का आंकडा मप्र से जोडकर क्यों दिया जा रहा है ? और यदि छग में कोई किसान आत्महत्या नहीं होती तो छग को बदनाम करने की क्या ज़रूरत है ?
उसके बाद मैंने एक वेबसाइट पर सुष्मिता मालवीय का भोपाल से एक लेख पढा । सुष्मिता ने भी मप्र और छग का सम्मिलित आंकडा ही दिया । छत्तीसगढ के कृषि विभाग के अधिकारी को इस रिपोर्ट में यह कहकर उद्धृत किया गया है “हमारे पास छत्तीसगढ में किसी भी किसान आत्महत्या का कोई रिकॉर्ड नहीं है । हमारे पास यह अध्ययन नहीं पहुंचा है पर यह आंकडे बिल्कुल बेबुनियाद हैं” ।
मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था । मैंने “छत्तीसगढ” के सम्पादक सुनील कुमार जी से सम्पर्क किया । उन्होंने बताया “पूरा छत्तीसगढ दंतेवाडा नहीं है कि यहां हज़ारो की तादाद में किसान आत्महत्या करेंगे और कोई इस बारे में कुछ नहीं लिखेगा” !
पर मुझे आश्चर्य होता रहा कि प्रधानमंत्री ने पिछले साल आत्महत्या कर रहे किसानों के लिए 17,000 करोड का पैकेज जारी किया और यदि मध्यप्रदेश में किसान आत्महत्या का आंकडा आंध्र, कर्नाटक और केरल से अधिक है तो फिर प्रधानमंत्री ने मध्यप्रदेश के किसानों के लिए राहत पैकेज क्यों नहीं दिया ?
मैंने मध्यप्रदेश में कई पत्रकारों को फोन किया । उन्होंने बताया किसान आत्महत्या की खबरें छपीं तो थी पर सरकार ने कहा ये आंकडे गलत हैं फिर मामला ठण्डा हो गया ।
मैंने “हिंदू” के ग्रामीण मामलों के संपादक पी साईनाथ को फोन किया । श्री साइनाथ ने कहा “मैं किसान आत्महत्या विषय पर सन 2000 से लिख रहा हूं । पहले सब मेरी खिल्ली उडाते थे । 2004 में चन्द्रबाबू नायडू की हार के बाद ही आंध्र में लोगों ने मुझे गंभीरता से लेना शुरु किया । पर 2004 में विदर्भ के लोग भी मुझसे कहते थे ये आंध्र में हो रहा होगा विदर्भ में ऐसा कुछ नहीं होता । पर सरकारी आंकडे ही बताते हैं कि 90 के दशक से ही विदर्भ में आंध्र से दुगुनी किसान आत्महत्याएं हो रही हैं” ।
जब मैंने कहा कि छत्तीसगढ के पत्रकार इन आंकडों को झूठा बता रहे हैं । श्री साईनाथ ने कहा “छत्तीसगढ का कौन सा अखबार किसान की खबरें छापता है ? किसी अखबार में कृषि के लिए एक भी रिपोर्टर है ? अब मैं क्या क्या करूं, कहां कहां जाउं? मैं अकेला आदमी हूं और पिछले कई सालों से विदर्भ से नहीं निकल पाया हूं । देखता हूं अब अप्रैल के बाद छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश जाने की कोशिश करूंगा, इस विषय पर अध्ययन और लिखने की ज़रूरत है” ।
अब के. नागराज भी अपने अवकाश से वापस आ गए थे । मेरे पहले प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा “मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के आंकडे एक साथ नहीं हैं पर मेरा अध्ययन 1997 से है जब छत्तीसगढ बना नहीं था इसलिए मैं अपनी सुविधा के लिए मध्यप्रदेश के साथ छत्तीसगढ के आंकडे जोड देता हूं । सारे पत्रकार मुझे ही कोट करते रहते हैं जहां से मैं आंकडे लेता हूं वहां नहीं जाते । पर आपका यह सोचना गलत है कि सारी किसान आत्महत्याएं मध्यप्रदेश में हो रही है पिछले कई सालों में छत्तीसगढ में किसान आत्महत्याएं मध्यप्रदेश से भी अधिक हुई हैं । 2006 के आंकडे के अनुसार मध्यप्रदेश में 1375 किसानों ने आत्महत्या की तो छत्तीसगढ के लिए यह आंकडा 1483 का है” ।
श्री नागराज ने कहा “छत्तीसगढ के आंकडों को देखकर पहले मैं भी हैरान था । मुझे लगता था कि उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह छत्तीसगढ से भी किसान पलायन करते हैं तो वहां किसान आत्महत्याएं कम होंगी । और यदि आप कह रहे हैं कि यह आंकडे गलत हैं तो फिर तो सारे प्रदेशों के आंकडे झूठे होंगे क्योंकि प्रत्येक प्रदेश के लिए आंकडों का स्रोत एक ही है । जहां तक मेरी समझ है ये आंकडे दर असल सच्चाई से कम हैं । उदाहरण के तौर पर यदि किसी किसान ने आत्महत्या की पर उसके नाम पर कोई खेत नहीं है तो उस आत्महत्या को किसान की आत्महत्या के रूप में दर्ज़ नहीं किया जाता । किसानों की आत्महत्या का वास्तविक आंकडा तो इससे भी कहीं अधिक होगा” ।
सन 2001 से छत्तीसगढ में हुई किसान आत्महत्या के आंकडों के लिए मैंने राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो से सम्पर्क किया तो उन्होंने मुझे आंकडे दे दिए ( बाक्स देखें) और वहां के अधिकारियों ने मुझसे कहा यदि आपको हमारे आंकडों पर विश्वास नहीं है तो अपने प्रदेश की पुलिस से पूछिए । सारे आंकडे हमें राज्यों की पुलिस ही देती है” ।
पी साईनाथ कहते हैं “छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश की किसान आत्महत्याओं पर इस खामोशी के लिए न सिर्फ वहां के पत्रकार बल्कि एक्टिविस्ट भी दोषी है” ।
दोनों प्रदेशों के लिए यह चुनाव का साल है । क्या चुनाव के इस साल में यह खामोशी टूटेगी?
shu@cgnet.in
Box
छत्तीसगढ में किसान आत्महत्या
2001 : 1452
2002 : 1238
2003 : 1066
2004 : 1395
2005 : 1412
2006 : 1483
स्रोत : केन्द्रीय गृह मंत्रालय का राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो
Saturday, February 23, 2008
Saturday, February 2, 2008
आत्महत्याग्रस्त शेतकऱ्यांच्या कुटुंबीयांना अन्नसुरक्षा द्या - किशोर तिवारींची न्यायालयाला विनंती
आत्महत्याग्रस्त शेतकऱ्यांच्या कुटुंबीयांना अन्नसुरक्षा द्या - किशोर तिवारींची न्यायालयाला विनंती
दहा दिवसात उत्तर द्या - उच्च न्यायालयाचे शासनाला आदेश
(आशिष बडवे )
नागपूर, ता. २ - विदर्भातील कापूस उत्पादक शेतकऱ्यांना अन्नसुरक्षा देण्यात यावी, अशी विनंती विदर्भ जनआंदोलन समितीचे अध्यक्ष किशोर तिवारी यांनी आज न्यायालयास केली. त्यावर शासनाने दहा दिवसांत उत्तर सादर करावे, असा आदेश न्यायालयाने दिला आहे. .....
शेतकऱ्यांच्या आत्महत्येकडे लक्ष वेधणारी जनहित याचिका उच्च न्यायालयातील न्या. ए. पी. लवांदे आणि न्या. अरुण चौधरी यांच्या खंडपीठासमोर सादर करण्यात आली आहे. याचिकेवर यापूर्वी झालेल्या सुनावणीत न्यायालयाने शासनाला विविध आदेश दिले आहेत. तर केंद्र व राज्य शासनाच्या पॅकेजनंतरही शेतकऱ्यांच्या आत्महत्या थांबलेल्या नाहीत, याकडे याचिकाकर्त्यांनी न्यायालयाचे लक्ष वेधले आहे. तेव्हा शेतकऱ्यांना तातडीने कशा स्वरूपात मदत करता येईल, त्याकरिता सूचना सादर कराव्यात, असे याचिकाकर्त्यांना सांगण्यात आले होते. त्यानुसार, विदर्भ जनआंदोलन समितीने काही शिफारशी न्यायालयाला केल्या आहेत. त्यात केंद्र व राज्य शासनाच्या पॅकेजची अंमलबजावणी करण्याकरिता वसंतराव नाईक शेती स्वावलंबन मिशनकडे पुरसे अधिकारी आणि कर्मचारी नाहीत, असे नमूद करण्यात आले आहे. तर येथे कायमस्वरूपी संचालकांनी नियुक्ती करावी, अशी मागणी करण्यात आली आहे. तर अंत्योदय योजनेत शेतकऱ्यांना नियमितपणे धान्यपुरवठा करण्यात यावा, असे नमूद करण्यात आले आहे.
दरम्यान, नोव्हेंबर २००७ पर्यंत ३,६७९ शेतकऱ्यांनी आत्महत्या केल्या आहेत, तर त्यापैकी केवळ १४,८८ शेतकऱ्यांनाच शासनाने मदत दिली आहे. त्यामुळे २,०६४ शेतकऱ्यांच्या आत्महत्या शासनाने नाकारल्या आहेत. त्यामुळे या आत्महत्या शासनाने का नाकारल्या, त्याचे स्पष्टीकरण शासनाने द्यावे, अशी मागणी केली आहे. शासकीय वेबसाईटनुसार ९२ हजार ४५६ शेतकरी कुटुंबांमध्ये विविध आजार असल्याचे म्हटले आहे. त्यामुळे त्यांच्याकरिता तातडीने आरोग्य सेवा पुरविणे आवश्यक आहे. तर चार लाख ३४ हजार २९१ कुटुंब तणावाखाली आहेत. त्यांना या मानसिक तणावातून मुक्त करण्यासाठी उपाययोजना कराव्यात, विशेषत: सार्वजनिक वितरण प्रणालीतून त्यांना धान्यपुरवठा करणे आवश्यक आहे, असे न्यायालयास सुचविण्यात आले आहे. या शिफारशींवर शासनाने दहा दिवसांत उत्तर सादर करावे, असा आदेश देण्यात आला आहे. याचिकेवर २९ फेब्रुवारीला सुनावणी होणार आहे.
दहा दिवसात उत्तर द्या - उच्च न्यायालयाचे शासनाला आदेश
(आशिष बडवे )
नागपूर, ता. २ - विदर्भातील कापूस उत्पादक शेतकऱ्यांना अन्नसुरक्षा देण्यात यावी, अशी विनंती विदर्भ जनआंदोलन समितीचे अध्यक्ष किशोर तिवारी यांनी आज न्यायालयास केली. त्यावर शासनाने दहा दिवसांत उत्तर सादर करावे, असा आदेश न्यायालयाने दिला आहे. .....
शेतकऱ्यांच्या आत्महत्येकडे लक्ष वेधणारी जनहित याचिका उच्च न्यायालयातील न्या. ए. पी. लवांदे आणि न्या. अरुण चौधरी यांच्या खंडपीठासमोर सादर करण्यात आली आहे. याचिकेवर यापूर्वी झालेल्या सुनावणीत न्यायालयाने शासनाला विविध आदेश दिले आहेत. तर केंद्र व राज्य शासनाच्या पॅकेजनंतरही शेतकऱ्यांच्या आत्महत्या थांबलेल्या नाहीत, याकडे याचिकाकर्त्यांनी न्यायालयाचे लक्ष वेधले आहे. तेव्हा शेतकऱ्यांना तातडीने कशा स्वरूपात मदत करता येईल, त्याकरिता सूचना सादर कराव्यात, असे याचिकाकर्त्यांना सांगण्यात आले होते. त्यानुसार, विदर्भ जनआंदोलन समितीने काही शिफारशी न्यायालयाला केल्या आहेत. त्यात केंद्र व राज्य शासनाच्या पॅकेजची अंमलबजावणी करण्याकरिता वसंतराव नाईक शेती स्वावलंबन मिशनकडे पुरसे अधिकारी आणि कर्मचारी नाहीत, असे नमूद करण्यात आले आहे. तर येथे कायमस्वरूपी संचालकांनी नियुक्ती करावी, अशी मागणी करण्यात आली आहे. तर अंत्योदय योजनेत शेतकऱ्यांना नियमितपणे धान्यपुरवठा करण्यात यावा, असे नमूद करण्यात आले आहे.
दरम्यान, नोव्हेंबर २००७ पर्यंत ३,६७९ शेतकऱ्यांनी आत्महत्या केल्या आहेत, तर त्यापैकी केवळ १४,८८ शेतकऱ्यांनाच शासनाने मदत दिली आहे. त्यामुळे २,०६४ शेतकऱ्यांच्या आत्महत्या शासनाने नाकारल्या आहेत. त्यामुळे या आत्महत्या शासनाने का नाकारल्या, त्याचे स्पष्टीकरण शासनाने द्यावे, अशी मागणी केली आहे. शासकीय वेबसाईटनुसार ९२ हजार ४५६ शेतकरी कुटुंबांमध्ये विविध आजार असल्याचे म्हटले आहे. त्यामुळे त्यांच्याकरिता तातडीने आरोग्य सेवा पुरविणे आवश्यक आहे. तर चार लाख ३४ हजार २९१ कुटुंब तणावाखाली आहेत. त्यांना या मानसिक तणावातून मुक्त करण्यासाठी उपाययोजना कराव्यात, विशेषत: सार्वजनिक वितरण प्रणालीतून त्यांना धान्यपुरवठा करणे आवश्यक आहे, असे न्यायालयास सुचविण्यात आले आहे. या शिफारशींवर शासनाने दहा दिवसांत उत्तर सादर करावे, असा आदेश देण्यात आला आहे. याचिकेवर २९ फेब्रुवारीला सुनावणी होणार आहे.
Subscribe to:
Posts (Atom)